Friday, July 31, 2020

सदाशिव

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।
हरे सब दुःख भक्तों के,
दयाकर हो तो ऐसा हो ॥

शिखर कैलाश के ऊपर,
कल्पतरुओं की छाया में ।
रमे नित संग गिरिजा के,
रमणधर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

शीश पर गंग की धारा,
सुहाए भाल पर लोचन ।
कला मस्तक पे चन्दा की,
मनोहर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

भयंकर जहर जब निकला,
क्षीरसागर के मंथन से ।
रखा सब कण्ठ में पीकर,
कि विषधर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

सिरों को काटकर अपने,
किया जब होम रावण ने ।
दिया सब राज दुनियाँ का,
दिलावर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

बनाए बीच सागर के,
तीन पुर दैत्य सेना ने ।
उड़ाए एक ही शर से,
त्रिपुरहर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

देवगण दैत्य नर सारे,
जपें नित नाम शंकर जो,
वो ब्रह्मानन्द दुनियाँ में,
उजागर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।
हरे सब दुःख भक्तों के,
दयाकर हो तो ऐसा हो ॥

सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

* कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

* मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

* सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

* कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

* कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥

* तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥

* लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

दोहा :

* मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

* बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥

* जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥

 सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥

* सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌ ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌ ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥


शैलशुंग सम विशाल,जटाजूट चंद्रभाल,
गंगकी तरंग बाल,विमल झाल राचे,
लोचन त्रय लाल लाल,चंदनकी खोर भाल,
कुमकुम सिंदुर गुलाल,भ्रकुटी युगल साचे,
मूंडन की कंठ माल,विकसीत लरुके प्रशाल,
फटीक जाल रुद्रमाल,नर क्रूपाल राचे,
बम् बम् बम् डमरु बज,नादवेद स्वर सुसाज,
शंकर महाराज आज तांडव नाचे,
जीये शंकर महाराज आज तांडव नाचे..

भलकत्त हे चंद्र भाल जलकत्त हे नैन ज्वाल,
ढळक्तत हे गल विशाल मुंडन माला ,
धर्म भक्त प्रणतपाल, नाम रटत सो निहाल,-
काटत हे फ़ंद काल दीन दयाला,
शोभे योगी स्वरूप्, सहत ब्रखा, सीत, धुप,
धूर्जटि अनूप भस्म लेपन धारी सुन्दर...........2

घूमत शक्ति घुमंड, भुतनके झुंड़ झुंड ,
भभकत गाजत ब्रह्मांड नाचत भैरु,
करधर त्रिशूल कमंड, राक्षस दल देत दंड,
खेलत शंभु अखंड डहकत डेरुं,
देवन के प्रभुदेव, प्रगट सत्य अप्रमेव,
चतुरानन करत सेव नंदी, स्वारी.............3

करपूर गौरम करूणावतारम
संसार सारम भुजगेन्द्र हारम |
सदा वसंतम हृदयारविंदे
भवम भवानी सहितं नमामि ||

Monday, July 27, 2020

विश्वनाथाष्टकम् | विश्वनाथाष्टकस्तोत्रम्


विश्वनाथाष्टकस्तोत्रम्

आदिशम्भु-स्वरूप-मुनिवर-चन्द्रशीश-जटाधरं
मुण्डमाल-विशाललोचन-वाहनं वृषभध्वजम् ।
नागचन्द्र-त्रिशूलडमरू भस्म-अङ्गविभूषणं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ १॥
गङ्गसङग-उमाङ्गवामे-कामदेव-सुसेवितं
नादबिन्दुज-योगसाधन-पञ्चवक्तत्रिलोचनम् ।
इन्दु-बिन्दुविराज-शशिधर-शङ्करं सुरवन्दितं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ २॥
ज्योतिलिङ्ग-स्फुलिङ्गफणिमणि-दिव्यदेवसुसेवितं
मालतीसुर -पुष्पमाला -कञ्ज-धूप-निवेदितम् ।
अनलकुम्भ-सुकुम्भझलकत-कलशकञ्चनशोभितं
श्रीनीलकण्ठहिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ३॥
मुकुटक्रीट-सुकनककुण्डलरञ्जितं मुनिमण्डितं
हारमुक्ता-कनकसूत्रित-सुन्दरं सुविशेषितम् ।
गन्धमादन-शैल-आसन-दिव्यज्योतिप्रकाशनं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथ-विश्वेश्वरम् ॥ ४॥
मेघडम्वरछत्रधारण-चरणकमल-विलासितं
पुष्परथ-परमदनमूरति-गौरिसङ्गसदाशिवम् ।
क्षेत्रपाल-कपाल-भैरव-कुसुम-नवग्रहभूषितं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथ-विश्वेश्वरम् ॥ ५॥
त्रिपुरदैत्य-विनाशकारक-शङ्करं फलदायकं
रावणाद्दशकमलमस्तक-पूजितं वरदायकम् ।
कोटिमन्मथमथन-विषधर-हारभूषण-भूषितं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ६॥
मथितजलधिज-शेषविगलित-कालकूटविशोषणं
ज्योतिविगलितदीपनयन-त्रिनेत्रशम्भु-सुरेश्वरम् ।
महादेवसुदेव-सुरपतिसेव्य-देवविश्वम्भरं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ७॥
रुद्ररूपभयङ्करं कृतभूरिपान-हलाहलं
गगनवेधित-विश्वमूल-त्रिशूलकरधर-शङ्करम् ।
कामकुञ्जर-मानमर्दन-महाकाल-विश्वेश्वरं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वेनाथविश्वेश्वरम् ॥ ८॥
ऋतुवसन्तविलास-चहुँदिशि दीप्यते फलदायकं
दिव्यकाशिकधामवासी-मनुजमङ्गलदायकम् ।
अम्बिकातट-वैद्यनाथं शैलशिखरमहेश्वरं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ९॥
शिवस्तोत्र-प्रतिदिन-ध्यानधर-आनन्दमय-प्रतिपादितं
धन-धान्य-सम्पति-गृहविलासित-विश्वनाथ-प्रसादजम् ।
हर-धाम-चिरगण-सङ्गशोभित-भक्तवर-प्रियमण्डितं
आनन्दवन-आनन्दछवि-आनन्द-कन्द-विभूषितम् ॥ १०॥
इति श्रीशिवदत्तमिश्रशास्त्रिसंस्कृतं विश्वनाथाष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।