Monday, October 5, 2020

शिव पंचाक्षर स्तोत्र

 


शिव पंचाक्षर स्तोत्र की रचना आदि शंकराचार्य ने की थी। नमः शिवाय के पहले पांचों अक्षरों न, म, शि, वा और य से पांच श्लोकों की रचना की गई है। इसके जरिए शंकराचार्य ने शिव की महिमा का बखान किया है, जो शिवस्वरूप है। जानते हैं इसके बारे में...

श्लोक- नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय। नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मै न काराय नमः शिवायः॥

अर्थ- जिनके कंठ मे सांपों का हार है, जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अनुलेपन हुआ है और दिशांए ही जिनके वस्त्र हैं, उन अविनाशी महेश्वर 'न' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है।

श्लोक- मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय। मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मै म काराय नमः शिवायः॥

अर्थ- गंगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चना हुई है, मन्दार के फूल और अन्य पुष्पों से जिनकी सुंदर पूजा हुई है, उन नन्दी के अधिपति और प्रमथगणों के स्वामी महेश्वर 'म' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है।

श्लोक- शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय। श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै शि काराय नमः शिवायः॥

अर्थ- जो कल्याण स्वरूप हैं, पार्वती जी के मुख कमल को प्रसन्न करने के लिये जो सूर्य स्वरूप हैं, जो राजा दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं, जिनकी ध्वजा में बैल का चिन्ह है, उन शोभाशाली श्री नीलकण्ठ 'शि' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है।

श्लोक- वसिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमार्य मुनींद्र देवार्चित शेखराय। चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै व काराय नमः शिवायः॥

अर्थ- वशिष्ठ, अगस्त्य और गौतम आदि श्रेष्ठ ऋषि मुनियों ने तथा इंद्र आदि देवताओं ने, जिनके मस्तक की पूजा की है। चंद्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन 'व' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है।

श्लोक- यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय। दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै य काराय नमः शिवायः॥

अर्थ- यक्षरूप धारण करने वाले, जटाधारी, जिनके हाथ में उनका पिनाक नाम का धनुष है, जो दिव्य सनातन पुरुष हैं, उन दिगम्बर देव 'य' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है।

पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेत् शिव सन्निधौ। शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

जो शिव के पास इस पवित्र पंचाक्षर मंत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वहां शिवजी के साथ आनंदित होता है।

||इति श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम्||

Friday, July 31, 2020

सदाशिव

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।
हरे सब दुःख भक्तों के,
दयाकर हो तो ऐसा हो ॥

शिखर कैलाश के ऊपर,
कल्पतरुओं की छाया में ।
रमे नित संग गिरिजा के,
रमणधर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

शीश पर गंग की धारा,
सुहाए भाल पर लोचन ।
कला मस्तक पे चन्दा की,
मनोहर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

भयंकर जहर जब निकला,
क्षीरसागर के मंथन से ।
रखा सब कण्ठ में पीकर,
कि विषधर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

सिरों को काटकर अपने,
किया जब होम रावण ने ।
दिया सब राज दुनियाँ का,
दिलावर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

बनाए बीच सागर के,
तीन पुर दैत्य सेना ने ।
उड़ाए एक ही शर से,
त्रिपुरहर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।

देवगण दैत्य नर सारे,
जपें नित नाम शंकर जो,
वो ब्रह्मानन्द दुनियाँ में,
उजागर हो तो ऐसा हो ॥

सदाशिव सर्व वरदाता,
दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।
हरे सब दुःख भक्तों के,
दयाकर हो तो ऐसा हो ॥

सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

* कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

* मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

* सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

* कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

* कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥

* तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥

* लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

दोहा :

* मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

* बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥

* जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥

 सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥

* सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌ ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌ ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥


शैलशुंग सम विशाल,जटाजूट चंद्रभाल,
गंगकी तरंग बाल,विमल झाल राचे,
लोचन त्रय लाल लाल,चंदनकी खोर भाल,
कुमकुम सिंदुर गुलाल,भ्रकुटी युगल साचे,
मूंडन की कंठ माल,विकसीत लरुके प्रशाल,
फटीक जाल रुद्रमाल,नर क्रूपाल राचे,
बम् बम् बम् डमरु बज,नादवेद स्वर सुसाज,
शंकर महाराज आज तांडव नाचे,
जीये शंकर महाराज आज तांडव नाचे..

भलकत्त हे चंद्र भाल जलकत्त हे नैन ज्वाल,
ढळक्तत हे गल विशाल मुंडन माला ,
धर्म भक्त प्रणतपाल, नाम रटत सो निहाल,-
काटत हे फ़ंद काल दीन दयाला,
शोभे योगी स्वरूप्, सहत ब्रखा, सीत, धुप,
धूर्जटि अनूप भस्म लेपन धारी सुन्दर...........2

घूमत शक्ति घुमंड, भुतनके झुंड़ झुंड ,
भभकत गाजत ब्रह्मांड नाचत भैरु,
करधर त्रिशूल कमंड, राक्षस दल देत दंड,
खेलत शंभु अखंड डहकत डेरुं,
देवन के प्रभुदेव, प्रगट सत्य अप्रमेव,
चतुरानन करत सेव नंदी, स्वारी.............3

करपूर गौरम करूणावतारम
संसार सारम भुजगेन्द्र हारम |
सदा वसंतम हृदयारविंदे
भवम भवानी सहितं नमामि ||

Monday, July 27, 2020

विश्वनाथाष्टकम् | विश्वनाथाष्टकस्तोत्रम्


विश्वनाथाष्टकस्तोत्रम्

आदिशम्भु-स्वरूप-मुनिवर-चन्द्रशीश-जटाधरं
मुण्डमाल-विशाललोचन-वाहनं वृषभध्वजम् ।
नागचन्द्र-त्रिशूलडमरू भस्म-अङ्गविभूषणं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ १॥
गङ्गसङग-उमाङ्गवामे-कामदेव-सुसेवितं
नादबिन्दुज-योगसाधन-पञ्चवक्तत्रिलोचनम् ।
इन्दु-बिन्दुविराज-शशिधर-शङ्करं सुरवन्दितं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ २॥
ज्योतिलिङ्ग-स्फुलिङ्गफणिमणि-दिव्यदेवसुसेवितं
मालतीसुर -पुष्पमाला -कञ्ज-धूप-निवेदितम् ।
अनलकुम्भ-सुकुम्भझलकत-कलशकञ्चनशोभितं
श्रीनीलकण्ठहिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ३॥
मुकुटक्रीट-सुकनककुण्डलरञ्जितं मुनिमण्डितं
हारमुक्ता-कनकसूत्रित-सुन्दरं सुविशेषितम् ।
गन्धमादन-शैल-आसन-दिव्यज्योतिप्रकाशनं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथ-विश्वेश्वरम् ॥ ४॥
मेघडम्वरछत्रधारण-चरणकमल-विलासितं
पुष्परथ-परमदनमूरति-गौरिसङ्गसदाशिवम् ।
क्षेत्रपाल-कपाल-भैरव-कुसुम-नवग्रहभूषितं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथ-विश्वेश्वरम् ॥ ५॥
त्रिपुरदैत्य-विनाशकारक-शङ्करं फलदायकं
रावणाद्दशकमलमस्तक-पूजितं वरदायकम् ।
कोटिमन्मथमथन-विषधर-हारभूषण-भूषितं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ६॥
मथितजलधिज-शेषविगलित-कालकूटविशोषणं
ज्योतिविगलितदीपनयन-त्रिनेत्रशम्भु-सुरेश्वरम् ।
महादेवसुदेव-सुरपतिसेव्य-देवविश्वम्भरं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ७॥
रुद्ररूपभयङ्करं कृतभूरिपान-हलाहलं
गगनवेधित-विश्वमूल-त्रिशूलकरधर-शङ्करम् ।
कामकुञ्जर-मानमर्दन-महाकाल-विश्वेश्वरं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वेनाथविश्वेश्वरम् ॥ ८॥
ऋतुवसन्तविलास-चहुँदिशि दीप्यते फलदायकं
दिव्यकाशिकधामवासी-मनुजमङ्गलदायकम् ।
अम्बिकातट-वैद्यनाथं शैलशिखरमहेश्वरं
श्रीनीलकण्ठ-हिमाद्रिजलधर-विश्वनाथविश्वेश्वरम् ॥ ९॥
शिवस्तोत्र-प्रतिदिन-ध्यानधर-आनन्दमय-प्रतिपादितं
धन-धान्य-सम्पति-गृहविलासित-विश्वनाथ-प्रसादजम् ।
हर-धाम-चिरगण-सङ्गशोभित-भक्तवर-प्रियमण्डितं
आनन्दवन-आनन्दछवि-आनन्द-कन्द-विभूषितम् ॥ १०॥
इति श्रीशिवदत्तमिश्रशास्त्रिसंस्कृतं विश्वनाथाष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

Tuesday, May 26, 2020

भगवान शिव के १०८ नामों का स्तोत्र : शिवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्

शिवशतनाम स्तोत्रम् या शिवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् का प्रसंग शिवपुराण के रुद्रसंहिता के सृष्टि खण्ड में और श्रीरामचरितमानस में आया है।


शिव पुराण की कथा
इस स्तोत्र का उपदेश भगवान नारायण ने पार्वतीजी को दिया था। भगवान श्रीविष्णु ने भगवान शिव के १०८ नाम माता पार्वतीजी को बतलाए थे। शंकरप्रिया पार्वती ने भगवान विष्णु की प्रेरणा से एक वर्ष तक प्रतिदिन तीनों कालों में इसका जप किया जिससे उन्हें भगवान शंकर पतिरूप में प्राप्त हुए और वे उनकी अर्धांगिनी बन गईं।

श्रीरामचरितमानस की कथा
श्रीरामचरितमानस में एक कथा है कि देवर्षि नारद को काम पर विजय प्राप्त करने से गर्व हो गया था और वह कहने लगे कि शंकरजी ने कामदेव को क्रोध से जला दिया, इसलिए वे क्रोधी हैं, किन्तु मैं काम और क्रोध दोनों से ऊपर उठा हुआ हूँ। परन्तु वास्तविकता यह थी कि जहां पर नारदजी ने तपस्या की थी, शंकरजी ने उस स्थल को कामप्रभाव से शून्य होने का वर दे दिया था। भगवान विष्णु ने नारदजी के कल्याण के लिए अपनी माया से श्रीमतीपुरी नाम की एक नगरी बनायी जहां पर राजकुमारी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था। विश्वमोहिनी के रूप से आकर्षित होकर नारदजी भी स्वयंवर में आए। पर भगवान विष्णु ने स्वयं विश्वमोहिनी से विवाह कर लिया। कामपीड़ित नारदजी को यह देखकर बड़ा क्रोध आया। क्रोध में उन्होंने भगवान विष्णु को अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में विक्षिप्त-सा होने का शाप दे दिया। तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मीजी भी लुप्त हो गईं। यह देखकर नारदजी की बुद्धि शुद्ध हो गयी और वे भगवान के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगे कि मेरा शाप मिथ्या हो जाए, मैंने आपको दुर्वचन कहे।


                                             

तब भगवान विष्णु ने नारदजी से कहा कि शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय हैं। आप शिवशतनाम का जप कीजिए, इससे आपके सब पाप मिट जाएंगे और ज्ञान-वैराग्य और भक्ति सदा के लिए आपके हृदय में बस जायेगी-

जपहु जाइ संकर सत नामा।
होइहि हृदयँ तुरन्त विश्रामा।।
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें।
असि परतीति तजहु जनि भोंरे।।
जेहिं पर कृपा न करहिं पुरारी।
सो न पाव मुनि भगति हमारी।। (मानस १।१३७।५-७)

इस प्रकार नारदजी ने शिवशतनामस्तोत्र का जप किया, जिससे उन्हें परम शान्ति की प्राप्ति हुई।
इस स्तोत्र के पाठ से पहले भगवान शंकर का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए-

'चन्द्रमण्डल में श्रीशिवजी विराजमान हैं, उनका गौर शरीर है, सर्प का कंगन और सर्प का ही हार पहने हुए हैं। शरीर पर भस्म लगाए हुए हैं, उनके हाथों में मृगी-मुद्रा एवं परशु हैं और अर्धचन्द्र सिर पर विराजमान है। मैं उन भगवान शंकर का हृदय में चिन्तन करता हूँ।'



शिवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्


शिवो महेश्वर: शम्भु: पिनाकी शशिशेखर:।

वामदेवो विरुपाक्ष: कपर्दी नीललोहित:।।
शंकर: शूलपाणिश्च खट्वांगी विष्णुवल्लभ:।
शिपिविष्टोऽम्बिकानाथ: श्रीकण्ठो भक्तवत्सल:।।

भव: शर्वस्त्रिलोकेश: शितिकण्ठ: शिवाप्रिय:।

उग्र: कपालि: कामारिरन्धकासुरसूदन:।।
गंगाधरो ललाटाक्ष: कालकाल: कृपानिधि।
भीम: परशुहस्तश्च मृगपाणिर्जटाधर:।।

कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तक:।

वृषांको वृषभारूढो भस्मोद्धूलितविग्रह:।।
सामप्रिय: स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्वर:।
सर्वज्ञ: परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचन:।।

हविर्यज्ञमय: सोम: पंचवक्त्र: सदाशिव:।

विश्वेश्वरो वीरभद्रो गणनाथ: प्रजापति:।।
हिरण्यरेता दुर्धर्षो गिरीशो गिरिशोऽनघ:।
भुजंगभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रिय:।।

कृत्तिवासा पुरारातिर्भगवान् प्रमथाधिप:।

मृत्युंजय: सूक्ष्मतनुर्जगद् व्यापी जगद्गुरु:।।
व्योमकेशो महासेनजनकश्चारुविक्रम:।
रुद्रो भूतपति: स्थाणुरहिर्बुध्न्यो दिगम्बर:।।

अष्टमूर्तिरनेकात्मा सात्त्विक: शुद्धविग्रह:।

शाश्वत: खण्डपरशुरजपाशविमोचक:।।
मृड: पशुपतिर्देवो महादेवोऽव्यय: प्रभु:।
पूषदन्तभिदव्यग्रो दक्षाध्वरहरो हर:।।

भगनेत्रभिदव्यक्त: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्।

अपवर्गप्रदोऽनन्तस्तारक: परमेश्वर:।।
एतदष्टोत्तरशतनाम्नामाम्नायेन सम्मितम्।
विष्णुना कथितं पूर्वं पार्वत्या इष्टसिद्धये।।

शंकरस्य प्रिया गौरी जपित्वा त्रैकालमन्वहम्।

नोदिता पद्मनाभेन वर्षमेकं प्रयत्नत:।।
अवाप सा शरीरार्धं प्रसादाच्छूंलधारिण:।
यस्त्रिसंध्यं पठेच्छम्भोर्नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।।

शतरुद्रित्रिरावृत्त्या यत्फलं प्राप्यते नरै:।

तत्फलं प्राप्नुयादेतदेकवृत्त्या जपन्नर:।।
बिल्वपत्रै: प्रशस्तैर्वा पुष्पैश्च तुलसीदलै:।
तिलाक्षतैर्यजेद् यस्तु जीवन्मुक्तो न संशय।।

नाम्नामेषां पशुपतेरेकमेवापवर्गदम्।

अन्येषां चावशिष्टानां फलं वक्तुं न शक्यते।।


।।इति श्रीशिवरहस्ये गौरीनारायणसंवादे शिवाष्टोत्तरशतदिव्य नामामृतस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

पाठ का फल
शतरुद्री के तीन बार पाठ करने से जो फल मनुष्य को प्राप्त होता है, वह फल उसे इस स्तोत्र के एक बार पाठ करने से प्राप्त हो जाता है। बेलपत्र, फूल और तुलसीदल से या तिल और अक्षत से जो महादेवजी का पूजन करते हैं, वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। भगवान शंकर के केवल एक नाम का जप ही मोक्ष देने वाला है फिर यदि शतनाम का पाठ किया जाए तो उसका फल वर्णनातीत है।

Tuesday, January 14, 2020

हनुमान बाहुक





छप्पय 

सिंधु तरन, सिय–सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।

भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥

गहन–दहन–निरदहन लंक निःसंक, बंक–भुव ।

जातुधान–बलवान मान–मद–दवन पवनसुव ॥

कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।

गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल–संकट–विकट ॥१॥



स्वर्न–सैल–संकास कोटि–रवि तरुन तेज घन ।

उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख–वज्रतन ॥

पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।

कपिस केस करकस लंगूर, खल–दल–बल–भानन ॥

कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।

संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥



झूलना – ( हनुमान बाहुक )

पञ्चमुख–छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो ।

बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥

जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो ।

दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३ Hanuman Bahuk॥



घनाक्षरी – Hanuman Bahuk ( हनुमान बाहुक )

भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन, अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।

पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥

कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।

बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४ (Hanuman Bahuk)॥



भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।

कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर–रस–बारि–निधि जाको बल जल भो ॥

बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।

नाई–नाई–माथ जोरि–जोरि हाथ जोधा जो हैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥



गो–पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।

द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥

संकट समाज असमंजस भो राम राज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।

साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥



कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।

जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥

कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।

भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥



दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू, अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।

सीय–सोच–समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥

दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।

ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥



दवन दुवन दल भुवन बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।

पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु, सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥

लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।

राम को दुलारो दास बामदेव को निवास। नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥



महाबल सीम महा भीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।

कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥

दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।

सीय–सुख–दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥



रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर, मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।

धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥

खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।

आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥



सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।

देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।

सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥



सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।

लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥

केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।

बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥



करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ, महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।

बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम, लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥

आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।

मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥



मन को अगम तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।

देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।

बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।

बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥



सवैया Hanuman Bahuk ( हनुमान बाहुक )



जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।

ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।

दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥



तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।

तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।

बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥



सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।

तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥

तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।

बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥



अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।

बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥

राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।

पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥



घनाक्षरी – Hanuman Bahuk ( हनुमान बाहुक )



जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन, मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।

सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।

साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥२०॥



बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।

रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥

बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।

केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर, बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥



उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।

राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥

साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।

पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥२२॥



राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।

मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे, जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।

महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥



लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।

कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।

बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि, उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥२४॥



करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।

बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥

आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।

पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की, बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥२५॥



भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।

करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।

आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥२६॥



सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।

लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार, जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥

तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।

भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥



तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।

तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब, तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥

साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।

आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८॥



टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।

कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥

इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु, कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।

सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥२९॥



आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।

औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।

चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥



दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।

बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥

एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।

थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥



देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।

पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग, राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।

क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥



तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।

तेरे बल राम राज किये सब सुर काज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।

तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥३३॥



पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।

भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥

अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।

बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥३४॥



घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।

बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥

करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।

खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥३५॥



सवैया – Hanuman Bahuk ( हनुमान बाहुक )

राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।

पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥

बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।

श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥


घनाक्षरी Hanuman Bahuk ( हनुमान बाहुक )

काल की करालता करम कठिनाई कीधौ, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।

बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥

लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।

भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥३७॥



पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है ।

देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥

हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।

कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥३८॥



बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि, मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।

राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥

सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ, जिनके समूह साके जागत जहान है ।

तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥३९॥



बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।

परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥

खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।

तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥



असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।

तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥

नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।

ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥४१॥



जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।

तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥

मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।

भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥४२॥



सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।

मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥

ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।

कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥४३॥



कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।

हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥

माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।

तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं, हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥४४॥